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विधान सभा अध्यक्ष ‘हृदय नारायण दीक्षित’ से ‘दिशा’ के लिए प्रवीण कुमार सिंह ने विशेष बातचीत

विधान सभा अध्यक्ष ‘हृदय नारायण दीक्षित’ से ‘दिशा’ के लिए प्रवीण कुमार सिंह ने विशेष बातचीत

‘जो संवेदनशील है वो सृजनशील होगा’- दीक्षित

साहित्य में रूचि रखने वाले भारतीय राजनेता बहुत विरले हैं। उत्तर प्रदेश
विधान सभा अध्यक्ष ‘हृदय नारायण दीक्षित’ एक प्रखर राजनेता के साथ मर्मज्ञ साहित्यकार भी हैं। वे 18 किताबें लिखें हैं। समाचारपत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते हैं। उनसे ‘दिशा’ के लिए प्रवीण कुमार सिंह ने विशेष बातचीत की हुई के प्रमुख अंश-
 ‘जो संवेदनशील है वो सृजनशील होगा’- दीक्षित

प्र. अपने राजनीतिक यात्रा के बारे में बतायें?
 दीक्षितः मेरा जन्म उन्नाव जिला के सई नदी के किनारे बसे गाॅंव लउवा में हुआ।मेरे पिताजी साधारण किसान थे। हमारे गाॅंव से प्राईमरी स्कूल 12 किमी. दूर था। जिसमे मेरा दाखिला हुआ। स्कूल दूर था तो पिताजी और गांव के लोगों ने मिलकर प्राईवेट मास्टर की व्यवस्था की; तब कोचिंग जैसे स्कूल चलने लगा। इस तरह नाम वहां था पढ़े यहां, और प्राईमरी स्कूल पास हो गया। ‘‘मैं अपने गाॅंव का प्रथम प्राईमरी पास था!’’ फिर मीडिल स्कूल पास किया। इंटर की पढ़ाई घर से 13 किमी. दूर मौराव के इंटर कालेज में हुई। उस कालेज के संस्थापक सांसद संजय सेठ के दादा थे। स्नातक की पढ़ाई जिला मुख्यालय के डिग्री कालेज में हुई, वहीं से परास्नातक किया। उस वक्त शहर से कई छोटे-छोटे अखबार प्रकाशित होते थे, उनमें लिखने लगा। आज  पीछे के तरफ मुड़कर देखता हूॅं। तो मेरे भीतर संवेदनशीलता और सामाजिक बुराईयों के प्रति विद्रोह था। बस कुछ सोचा समझा नहीं उनका पुरजोर
 विरोध करने लगा। और लेखनी में भी प्रतिरोध को उकेरता। कालेज में पढ़ाई के अलावा पुस्तकालय का पूरा उपयोग करता। एक बार पुलिसवाला एक ररिक्शेवाले को मार रहा था, मुझें इतना गुस्सा आया कि उसका डंडा छीनकर उसे उल्टा मारने लगा। उसको लेकर बहुत बवाल हुआ। ऐसा कई बार हुआ। तभी संघ के संपर्क में आकर जुड़ गया। पूरी कर्तव्यनिष्ठा से संघ का काम करने लगा। पढ़ाई के उपरान्त तहसील पर स्थित एक विद्यालय में अध्यापक हो गया। जहां गरीब-गुरबा पर पुलिस प्रसाशन द्वारा किये अत्याचार के विरूद्व कुछ न कुछ आंदोलन करता रहता। मेरे प्रधानाचार्य जो मुझसे बहुत स्नेह करते थे डांटते हुए बोले कि ‘‘नेतागिरी करो या नौकरी’’! मैं सामने रखा रजिस्टर खोला, उसमे कागज का एक पन्ना था। उस पर स्तीफा लिखकर दे दिया। वे अवाक हो गये। मेरा मान-मनौव्वल किये। लेकिन मैं समझाया कि आप से नाराज नहीं हुआ, अब पूरी तरह जनता की सेवा करूंगा। वहां से अश्रुपूर्वक बड़ी मार्मिक विदाई हुई। तब अशोक सिंघलजी विभाग प्रचारक थे। वे और संगठन के लोगों ने मुझें जनसंघ में भेज दिया। इस तरह से मैं जनसंघ का नेता बन गया। पहले जनसंघ का जिला संयुक्त मंत्री और मंत्री बना। जिला परिषद सदस्य का चुनाव का लड़ा और जीता। तभी आपताकाल आ गया। पहली बार जेल गया। वहां खूब पढ़ा। सन् 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई और हम 19 महीनें बाद बाहर आये। फिर
 जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई। भाजपा की स्थापना हुई उसका भी जिला अध्यक्ष रहा। विधानसभा चुनाव हुआ तभी पार्टी में कुछ मनमुटाव हो गया तो निर्दल चुनाव लड़ गया और जीता।

 प्र. अपने पत्रकारिता और साहित्य के बारे में बतायेें?
 दीक्षितः मेरे अंदर संवेदनशीलता सामान्य से ज्यादा है। प्रकृति के सौैन्दर्य
को देखकर विभोर हो जाता हूॅं। तो दूसरे के दुःख और उसके ऊपर हो रहे अत्याचार को देखकर व्यथित हो जाता। सृजनकर्म वाणी के रूप में ही चित्त में उगने लगा; फिर बढ़ता, खिलता, फलता और पक पक कर… साहित्य बनता। ‘‘वैसे जो संवेदनशील होता है वो सृजनशील होगा।’’

 प्र. राजनीति में साहित्य की कितनी जरूरत है?
दीक्षितः ‘साहित्य का ध्येय लोकमंगल है’। ‘साहित्य समाज को उदात्त गुण से
भरपूर करता है’। साहित्य सृजन और राजनीति में भाव जगत् और अनुभूतियों का बहुत महत्व है। भाव और अनुभूति की कोई भाषा नहीं होती। दुःख, करूणा, प्रीति और प्यार की अभिव्यक्ति के लिए वाणी ही माध्यम बनती है। यहां साहित्य औैर राजनीति दोनो ही समाज में लोकमंगल की स्थापना करते हैं । साहित्य से समाज सृजनशील होता है। राजनति पर साहित्य का प्रभाव आवश्यक है।

प्र. राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन के इतने वर्षो बाद दूसरा कोई साहित्यकार
 विधानसभा अध्यक्ष बना, क्यो?
 दीक्षितः मैं क्या कहूॅं!

 प्र. जब आप ने राजनीति का प्रारम्भ किया। तब स्वतंत्रता आंदोलन से आये लोंग
 राजनीति में थे, उस दौर के नेताओं और आज के नेताओं में कितना अंतर है?
दीक्षितः अंतर तो स्वाभाविक है। समाज के हर क्षेत्र में परिर्वतन हुए हैं।
 तकनीकी का प्रभाव भी बढ़ा है। समस्त दिशाओं में परिर्वतन दृष्टि गोचर हो रहे हैं। सामाजिक परिर्वतन की रफ्तार सभी क्षेत्रों में अग्रसर है। तो राजनीति भी इससे अछूती नहीं रहेगी!

प्र. कौन सा लेखक और किताब आपकी सबसे प्रिय है?
 दीक्षितः सर्वाधिक प्रभाव ऋिग्वेद का पड़ा है। आलोचक रामविलास शर्माजी के लेखन व विश्लेषण शैली से प्रभावित हूॅं। जिसका व्यापक असर मेरे लेखन में भी है। मैनें करीब सैकड़ों पुस्तकों पढ़ी। जिससे अपार ज्ञान मिला। किसी एक पुस्तक या लेखक का नाम तय करना मुश्किल है।

 प्र. आप फिल्म भी देखते हैं। तो समाज में फिल्म की क्या भूमिका है?
 दीक्षितः जैसें कोई लेखक अपने कथा के माध्यम से चित्र और पात्र का निर्माण करता है। वैसे ही फिल्कार भी अपने योजनानुसार यथार्थ का चित्रण करता है। प्राचीनकाल के नाटक की अतिविकसित विधा ही आज का सिनेमा है। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में फिल्म के सभी मूल तत्व हैं। फिल्म भी अधिकांशत: वहीं है। पर तकनीकि वजह से फिल्म ज्यादा प्रभावशाली है।

 प्र. आप को सबसे अच्छी फिल्म कौन सी लगी?
 दीक्षितः आक्रोश, पार, अर्धसत्य, संशोधन, पार्टी, आंधी द्रोहकाल आदि उस दौर की बहुत सी फिल्में देखीं। जो बहुत अच्छी थी। वे फिल्में भीतर तक झिझोंड़ती हैं।

प्र. आप की अपनी बोली तुलसीदास की भी बोली है, अवधी में कुछ लिखें हैं?
 दीक्षितः नहीं लिखा, पर जरूर लिखेंगे।

प्र. राजनेता के तौर पर साहित्य से क्या लाभ हुआ?
 दीक्षितः समाज में काम करने के दो ही तरीके हैं। एक समाजसेवी हो या लेखन करें। वैसे बोलने से लिखना ज्यादा दूर तक असर करता है। एक घटना बता रहा हूॅं। मैं चुनाव के दौरान अपने विधानसभा क्षेत्र के एक गांव में जनसंपर्क करते हुए अर्धरात्रि को पहुंचा। वो गाॅंव अवधी के जनलोकप्रिय साहित्यकार ‘रमई काका’ का था। ‘मैं बोला कि पहले आप के यहां नहीं आ सका और आज भी बहुत विलम्ब हो गया’। गाॅंव के लोग बोले ‘कोई बात नही! आप का लेख समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं।’ सच में मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा…। किसी लेखक को इससे बढ़कर खुशी क्या होगी!

 प्र. हमारे देश में अंग्रेजी का असर बढ़ता जा रहा है?
दीक्षितः हम भारत को सांस्कृतिक राष्ट्र जानते और मानते हैं। भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। अंग्रेजी को विश्वव्यापी भाषा बताया जाता है। जबकि यूरोप के 43 देशों में से 40 की भाषा अंग्रेजी नहीं है। हमारे यहां राष्ट्र की धारणा में ‘लैंड पीपुल’ कल्चर सम्मिलित अवधारणा है।  नेशन शब्द 10 वी शताब्दी में आया। जबकि ‘राष्ट्र’ शब्द का उल्लेख  सबसे पहले ‘ऋग्वेद’ में आया है। हिंदी काफी मुश्किलों के बावजूद अब जाकर पंख फैलाकर उड़ रही है। अपनी सरलता और लोक आच्छादन की क्षमता के कारण, हिंदी की स्वीकार्यता में सभी भारतीय भाषाओं का विकास भी जुड़ा हुआ है। राष्ट्र भाषा को वास्तविक सम्मान मिलना चाहिये।

 प्र. आप रूस गये हैं?
 दीक्षितः नहीं।

प्र. रूस के किन-किन लेखकों को पढ़ें हैं?
 दीक्षितः टाॅलस्टाॅय, मैक्सीम गोर्की, चेखव, पुश्किन आदि।

 प्र. आप ने किन-किन देशों की यात्रा की है?
 दीक्षितः लंदन, नीदरलैंड, युगांडा, सिंगापुर।

 प्र. आजकल क्या लिख रहें हैं?
 दीक्षितः कोरोना लाकडाउन के दौरान अथर्व वेद पर एक किताब लिखा हूॅं। जो वाणी प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित होने वाली है।

 प्र. अभी तक जो नहीं लिख पायें?
दीक्षितः मित्रों का आग्रह है कि ‘आत्मकथा’ लिखूं, पर मुझें ठीक नहीं लगता।
 फ्रिक्शन भी मैं नहीं लिखता। हमारी अपनी योजना में भिन्न-भिन्न अवसरों पर उठने वाली भावनायें व अनुभूतियों को संकलित करने की इच्छा रही। इसके अलावा भारतीय समाज और दर्शन के सरोकारो पर भी पुस्तक लिखना चाहता हूॅं।

Pravin Kumar Singh
E-20, 1 Floor, Jawahar Park
 Laxmi Nagar, Delhi-110092

Ph. +918368306212
Email: pravin@journalist.com

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