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अमरीका तालिबान समझौता — क्या खोया ,क्या पाया एक विश्लेषण
डॉ. मंजू डागर
अंतर्राष्ट्रीय ज़र्नलिस्ट , आयरलैंड
सारी दुनिया में एक शब्द चल रहा है जोकि पूरा वाक्य भी है — redical islam , उग्र इस्लाम , कट्टर इस्लाम , विक्टिम इस्लाम जी हाँ सभी का मतलब एक ही है। आज अमरीका का राष्ट्र्पति हो या कोई और इस में तो कोई शक की गुंजाइश ही नहीं कि पूरी दुनिया Redical इस्लाम से दहशत के साये में जी रही है क्योंकि कभी ये Redical Islamist मुठ्ठी भर हुआ करते थे जोकि आज करोड़ो की संख्या पार कर चुके हैं।आखिरकार अमरीका को भी रेडिकल इस्लाम के आगे घुटने टेकने पड़े। अमरीका हमेशा से ही अपने हितों को सर्वोपरि रखता है ये एक बार फिर सही साबित हुआ जहां इस जंग में अमरीका को कोई फायदा नहीं हुआ तब उसने भी रेडिकल इस्लाम के आगे घुटने टेक ही दिए और समझौता कर के बीच से निकलने की तैयारी कर ही ली क्योंकि आने वाले चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प इसका फायदा लेना चाहते हैं।
साल 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने वादा किया था कि यदि वे सत्ता में आए तो अफगानिस्तान से अपनी फौज को वापस बुला लेंगे। चुनाव के दौरान इसका उन्हें समर्थन भी मिला था। ट्रम्प का कहना था कि सालों तक अफगानिस्तान में मौजूद रहने के बाद भी अमेरिका को इसका कोई फायदा नहीं मिला है। उन्होंने इसे अमरीका की पहले की सरकारों की एक बड़ी गलती भी करार दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कहा था कि अमेरिका ने पूरी दुनिया को सुरक्षित करने का ठेका नहीं ले रखा है। अब जबकि उनका कार्यकाल खत्म होने की ओर है और इस साल के अंत में वहां पर चुनाव होने हैं तब संभवता अमेरिकी फौज की वापसी एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। ये वो वादा है जिसको अभी तक ट्रंप पूरा नहीं कर सके हैं। इसलिए जानकार ये भी मानते हैं कि अमेरिका अफगानिस्तान में शांति कायम करने के लिए तालिबान से समझौते को हर हाल में करना चाहता था और आखिरकार समझौता हो ही गया। आपको यहां पर ये भी बता दें कि तालिबान और अमेरिका के बीच जो 18 महीने से शांति वार्ता चल रही थी । इस शांति वार्ता में अफगानिस्तान सरकार की तरफ से कोई नुमाइंदा शामिल नहीं किया गया है क्योंकि तालिबान ने ये बहुत पहले ही साफ कर दिया था कि वह अफगानिस्तान सरकार से तभी बातचीत करेगा जब अमेरिका से उसका समझौता हो जायेगा और देखिये अमरीका को भी उसकी पेशकश से सहमत होकर अफगानिस्तान सरकार को इस समझौते से दूर रखना पड़ा । अमरीका की मज़बूरी ये है कि पिछले 19 वर्षों से जारी संघर्ष में करीब 2,400 अमेरिकी जवानों की जान गई हैं। वहीं करीब 24 लाख से अधिक लोगों ने दूसरे देशों में शरण ली है। अफगानिस्तान में वर्ष 2001 से ही अमेरिकी फौज मौजूद है। अब इस समझौते के बाद यहां पर मौजूद करीब 14 हजार अमेरिकी सैनिकों की घर वापसी का रास्ता साफ होने की उम्मीद की जा रही है। गौरतलब है कि अमेरिका के लिए ये जंग सबसे लंबी और सबसे महंगी साबित हुई है, जहां अमेरिका को कोई सफलता हासिल नहीं हुई है। हालांकि अमरीका ये दावा कर रहा है कि अफगानिस्तान ने सुनिश्चित किया है कि वह अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों को पनाह नहीं देगा। शांति बहाली के लिए तालिबान ने अल-कायदा और अन्य विदेशी आतंकवादी समूहों के साथ अपने संबंधों को खत्म करने में भी रुचि दिखाई है। लेकिन ये तो वक़्त ही बताएगा की वो अपना वादा निभाता भी है या नहीं।
क्या तालिबान-अमेरिका समझौता भारत के लिए चिंता और डर का सबब है —
तालिबान और अमेरिका के बीच अफगानिस्तान को लेकर होने वाला समझौता भारत के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। अमेरिका भारत की चिंताओं से अवगत तो है लेकिन यहां पर उसकी अपनी मजबूरी काफी बड़ी है। तालिबान का यहां पर दोबारा काबिज होना भारत की क्षेत्रीए सुरक्षा के लिए भी एक बड़ा खतरा है। दरअसल, भारत नहीं चाहता है कि तालिबान जैसा कोई भी आतंकी संगठन अफगानिस्तान में अपनी सरकार बनाए। वहीं तालिबान का इस समझौते के पीछे पूरा मकसद अफगानिस्तान में दोबारा सरकार कायम करना है। इसमें उसकी मदद पाकिस्तान भी कर रहा है। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान की वर्तमान में चुनी गई सरकार की जगह तालिबान की हुकूमत कायम हो। इससे पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी सरकार बनाई थी तब केवल पाकिस्तान और क़तर ने ही उसको मान्यता दी थी। इसकी वजह एक ये भी है क्योंकि अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार भारत के हितों की पक्षधर रही है। भारत और अफगानिस्तान की सरकार के बीच बेहतर संबंध भी हैं। ऐसे में भारत ये सुनिश्चित करना चाहता है कि अमेरिका को ये भी देखना होगा कि उनके वहां के चले जाने से अफगानिस्तान में एक शून्य न बन जाए। यदि ऐसा होता है तब तालिबान फिर से वहां पर हावी हो जाएगा और हालात फिर से खराब हो जाएंगे। वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान तालिबान का साथ लेकर भारत में अशांति पैदा कर सकता है क्योंकि तालिबान के साथ पाकिस्तान के अच्छे संबंध हैं। इस समझौते के बाद पाकिस्तान अपने आतंकी शिविर अपने देश से हटाकर अफगानिस्तान भेज सकता है। साथ ही दुनिया को दिखाने की कोशिश कर सकता है कि वह आतंकियों पर कार्यवाही कर रहा है और फिर वह आसानी से एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से बाहर आ जाएगा। इसके अलावा डर ये भी है कि तालिबानी आतंकी अफगानिस्तान में पूरी तरह से कब्जा करने के बाद जम्मू कश्मीर की ओर बढ़ सकते हैं।
अभी तक अफगानिस्तान के विकास के लिए भारत अरबों रुपए खर्च कर चुका है। इस वक्त भी कई विकास कार्य चल रहे हैं। भारत को आशंका है कि तालिबान के हाथ में सत्ता आने के बाद वह इन विकास कार्यों को बंद करा सकता है। भारत अफगानिस्तान में महिला सुरक्षा और उनके अधिकारों की भी बात करता रहा है। वहीं तालिबान हमेशा से महिलाओं पर अत्याचार का समर्थन करता रहा है। वह महिलाओं पर कई तरह की बंदिशें लगाने की बात करता रहा है। तालिबान 16 साल की लड़की की शादी का समर्थन करता है। समझौते में महिलाओं की आजादी का कोई जिक्र नहीं है। इसी लिए इस समझौते को लेकर सबसे बड़ी चिंता अफगानिस्तान की महिलाओं को भी है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने तालिबान के उस दौर को करीब से देखा है जो आज भी उनके मन में भविष्य को लेकर भय पैदा कर रहा है। 1996-2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत थी। तालिबान की हुकूमत में अफगानिस्तान का नाम इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान था। 1990 में अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी तक तालिबान एक बड़ा आतंकी संंगठन बन चुका था। सोवियत रूस के यहां से जाने के बाद वह लगातार अपने छेत्र बढ़ाता रहा। 1996 से पहले ही उसने करीब दो तिहाई से भी अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद काबुल भी उसकी पहुंच में आ गया। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को जिन दो देशों ने मान्यता दी थी उसमें केवल कतर और पाकिस्तान शामिल था। कतर में ही तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी है जो आज भी बादस्तूर काम करता है। तालिबान को पाकिस्तान से हर संभव मदद मिलती रही है। इसमें आर्थिक और रणनीतिक मदद भी शामिल रही है।
अफगानिस्तान में शांति के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच जो शांति समझौता हुआ है उसने कई अहम् सवाल खड़े किए हैं। भारत के लिहाज से कतर में हुए इस समझौते में कुछ भी नहीं है। शांति समझौता अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि जालमे खालिलजाद और तालिबान के कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बरादार के बीच हुआ है। समझौते के वक्त अमेरिकी रक्षा मंत्री माइक पॉम्पियो और विदेश मंत्री मार्क एस्पर भी मौजूद रहे। समझौते के बाद तालिबान की तरफ से जो बयान दिए गए वह भारत के लिए चिंताजनक हैं। तालिबान के प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने समझौते में मदद के लिए पाकिस्तान का नाम तो लिया, लेकिन भारत का कहीं कोई जिक्र नहीं किया । अब्दुल्लाह बिरादर ने अफगानिस्तान में राष्ट्रपति अशरफ गनी का भी नाम नहीं लिया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तालिबान क्या रुख अख़्तियार करने वाला है। घर पर किसका शासन चलेगा इसका समझौता भी हो गया और घर के मालिक को ख़बर तक नहीं। इस समझौते में अफगानिस्तान सरकार की सक्रिय भागीदारी ना होने के कारण भारत पहले से चिंता जताता रहा है। हालांकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान ऐसा लग रहा था कि इसमें भारत की भूमिका भी कुछ ना कुछ होगी इसीलिए ट्रंप ने दिल्ली में इसके संकेत भी दिए थे , शायद इसी के बाद अमेरिका ने भारत से भी शांति समझौते में अपना प्रतिनिधि भेजने का अनुरोध किया था । इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कतर में हो रहे समझौते के लिए वहां भारत के राजदूत पी कुमारन को वहां मौजूद रहने को कहा। साथ ही विदेश सचिव हर्षवर्धन सिंगला को काबुल भेजा गया, जिस समय दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर दस्तखत हो रहे थे सिंगला काबुल में अफगान सरकार के साथ भारतीय हितों की बात कर रहे थे।
हालांकि शांति समझौते पर दस्तखत से पहले अमेरिकी रक्षा मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा है अगर अफगानिस्तान के सभी पक्षों ने इस पर अमल नहीं किया तो यह रद्दी का ढेर बन कर रह जाएगा। इसके बाद तालिबान प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने अपने संबोधन में जिस तरह की भाषा का जिक्र किया वह 90 के दशक के तालिबान सोच से बिल्कुल भी अलग नहीं है । बिरादर ने कहा कि इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में सभी को एकजुट हो जाना चाहिए वह बार-बार कट्टर इस्लामी व्यवस्था की बात कर रहे थे।
(दिशा मॉस्को के लिए विशेष)
डॉ मंजू डागर एक समृद्ध अनुभव सम्पन्न पत्रकार हैं और ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन सहित भारत के प्रमुख मीडिया आउटलेट्स के साथ सम्बद्ध रह चुकी हैं। उन्होंने पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए कई भारतीय और विदेशी पुरस्कार प्राप्त किए हैं। वर्तमान में वह ANM NEWS के साथ अंतर्राष्ट्रीय रोविंग संपादक और साक्षात्कारकर्ता के रूप में जुड़ी हुई हैं।
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